अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते। तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥ अर्थात (श्रीकृष्ण कहते हैं) जो भक्त अनन्य भाव से केवल मेरी शरण में रहते हैं और मेरा ध्यान करते हैं, उनके योग (आध्यात्मिक संरक्षण) और क्षेम (भौतिक संरक्षण) को मैं वहन करता हूँ। भगवद्गीता के अध्याय 9 के 22वें श्लोक में ईश्वर के उत्कृष्ट रूप, भगवान कृष्ण द्वारा दिए गए इस आश्वासन से बढ़कर और क्या होगा!
इस संरक्षण को पाने के लिए पहली अपरिहार्यता है, उनका ध्यान करके उनकी शरण में स्वयं को अर्पित करना। आज के इस उथल-पुथल भरे और तीव्र गति से चलायमान भौतिक युग में अपने मन को उस परमात्मा पर स्थिर रखना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य प्रतीत होता है। परंतु इस धरा पर समय-समय पर अवतरित ईश्वर प्राप्त संत और महात्माओं के वचन, उनकी वाणी और उनकी शिक्षाएँ मानवजाति के लिए सुहावना छत्र प्रदान करती हैं।
ऐसे ही मन और आत्मा के साम्राज्य की खोज करने वाले एक महान् गुरु श्री श्री परमहंस योगानन्दजी का कहना है कि जो व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति को ईश्वर की असीम इच्छाशक्ति के साथ एक कर लेता है, उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं होता। बचपन में मुकुन्द कहलाने वाले इस बालक ने अपने सहपाठी के साथ श्रीकृष्ण के दर्शनों की अभिलाषा में रातभर ध्यान किया, कृष्ण प्रेम के गीत गए, प्रार्थनाएँ की, प्राणायाम किया और अंततः उनकी कामना पूर्ण हुई और वे अपने अश्रुसिक्त नेत्रों से उनके दर्शन करने में सफल हुए। (परमहंस योगानन्दजी के छोटे भाई सनन्दलाल घोष की पुस्तक ‘मेजदा’ से उद्धृत)
ईश-प्रेम की इसी धारा को प्रवाहित करने हेतु योगानन्दजी ने योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/ सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप का वटवृक्ष रोपित कर योग की उदात्त वैज्ञानिक प्रविधि – क्रियायोग (प्राणशक्ति पर नियंत्रण की विधि) जिसे ईश्वर तक पहुँचने का वायुयान मार्ग कहा जाता है, प्रदान की। इसके विषय में वे अपनी पुस्तक ‘योगी कथामृत’ , जिसके पृष्ठों में पाठक आध्यात्मिक प्रभुत्व के प्रकाश की झलक पाता है, के अध्याय 26 में इस प्रविधि के बारे में विस्तार से बताते हैं।
योगानन्दजी ने कहा – जहाँ हमारी ऊर्जा होती है वहीं हमारी चेतना होती है। शरीर में विद्यमान हमारी ऊर्जा हमारी पाँच ज्ञानेन्द्रियों में प्रवाहित होकर चेतना को बहिर्गामी बनाती है। यदि इसके प्रवाह को अंतर्मुखी कर दिया जाए तो उसी अंतर्मुखी, निर्लिप्त मन के माध्यम से हम प्रेम के उस अनंत स्रोत तक पहुँच सकते हैं जो हमे कृष्ण चैतन्य का अनुभव करा सकता है, जहाँ श्रीकृष्ण हमारी चेतना में जन्म लेते हैं।
मन को अंतर्मुखी करने के लिए गीता के अध्याय 4 में संकलित श्लोक 29 में भगवान कृष्ण कहते हैं – साधक प्राण के भीतर जाते श्वास को अपान के बाहर जाते प्रश्वास में तथा अपान के बाहर जाते प्रश्वास को प्राण के भीतर जाते श्वास में हवन करते हैं और इस प्रकार प्राणायाम (क्रियायोग) के निष्ठापूर्वक अभ्यास के द्वारा सांस लेने की प्रक्रिया को अनावश्यक बना देते हैं और इस प्रकार योगी प्राणशक्ति पर सचेत नियन्त्रण प्राप्त कर लेता है। प्राणायाम की इस सूक्ष्म एवं प्रभावकारी क्रियायोग प्रविधि को सीखने से संबन्धित जानकारी yssofindia.org पर उपलब्ध है।
भगवद्गीता में भगवान कृष्ण के इन शब्दों : “जो व्यक्ति मुझे सर्वत्र देखता है तथा प्रत्येक वस्तु को मुझमें देखता है, मैं उसकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता, न ही वह मेरी दृष्टि से कभी ओझल होता है”, को आइए इस जन्माष्टमी के पावन अवसर पर अपने मन-मस्तिष्क में अंगीकार कर कृष्ण चैतन्य के परमानंद में जीना सीखें।
लेखिका
डॉ. मंजु लता गुप्ता