एक दिव्य गुरु को गुरु होने के लिए अपने शरीर की आवश्यकता नहीं होती है। आध्यात्मिक गौरव ग्रन्थ, “योगी कथामृत” के लेखक श्री श्री परमहंस योगानन्द और अबाधित पुस्तक, “कैवल्य दर्शनम्” के लेखक श्री श्री स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि आज भी अपने करोड़ों भक्तों के लिए इस कथन को चरितार्थ करते हैं।
मार्च का महीना इन दोनों गुरुओं की गौरवपूर्ण महासमाधि (मृत्यु के समय एक योगी का अपने शरीर से अभिज्ञ अन्तिम प्रस्थान) का प्रतीक है। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने 9 मार्च, 1936 को और उनके विश्व प्रसिद्ध शिष्य परमहंस योगानन्द ने 7 मार्च, 1952 को महासमाधि में प्रवेश किया।
क्रियायोग परम्परा के इन दोनों गुरुओं ने अपने शरीरों का एक पहचान योग्य वस्त्र की भाँति परित्याग कर दिया और मोक्ष प्राप्ति हेतु अपने भक्तों का मार्गदर्शन करते हुए विराट् क्रिया श्वास के माध्यम से जीवित रहे।
जैसा कि “योगी कथामृत” में वर्णित है, क्रियायोग एक ऐसी प्रविधि है जो प्रत्येक श्वास के साथ रक्त को कार्बन डाइऑक्साइड से मुक्त करती है और अन्ततः शरीर के क्षय को कम करती है और रोकती है। ऑक्सीजन के अतिरिक्त परमाणु कोशिकाओं को शुद्ध ऊर्जा में रूपान्तरित कर देते हैं। इस प्रकार 30 सेकंड की एक क्रिया श्वास के द्वारा उतना ही आध्यात्मिक विकास होता है जितना प्राकृतिक विकास के माध्यम से एक वर्ष में होता है।
क्रियायोग एक प्राचीन विज्ञान है जिसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया था और बाद में पतंजलि और अन्य शिष्यों को इसका ज्ञान था। वर्तमान युग में महावतार बाबाजी ने इसे लाहिड़ी महाशय को प्रदान किया था, जिन्होंने इसे योगानन्दजी के गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि को प्रदान किया था।
संन्यास के पूर्व योगानन्दजी का नाम मुकुन्द था। सन् 1910 में, जब वे 17 वर्ष के थे, उनकी भेंट अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि से हुई थी। अपने गुरु के कठोर मार्गदर्शन—जिसके कारण आश्रम के अन्य शिष्य मधुर शब्दों की खोज में आश्रम छोड़ कर चले जाते थे—में मुकन्द की आत्मा ने अपने गुरु के निर्देश ग्रहण किये।
युवा मुकुन्द को तो उनके गुरु द्वारा एक गुरु बनने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था। क्योंकि महावतार बाबाजी ने अनेक वर्ष पूर्व स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि से स्पष्ट रूप से यह कहा था कि पाश्चात्य जगत् में क्रियायोग का प्रचार करने के लिए योगानन्दजी ही चुनाव किया गया है।
प्रारम्भ में तो योगानन्दजी पूर्व में भी किसी संस्था की स्थापना करने के इच्छुक नहीं थे, परन्तु उन्होंने अपने गुरु के आगे सिर झुकाकर समर्पण कर दिया। उन्होंने सन् 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) की स्थापना की। सन् 1920 में उन्हें अमेरिका से बुलावा आया, जिसकी भविष्यवाणी पहले ही की जा चुकी थी। युवा गुरु उस देश की यात्रा पर निकल पड़े, जिसकी भाषा से वे उतने ही अनभिज्ञ थे जितने कि उस देश के लोग योग से। परन्तु भाषा की यह समस्या ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त गुरु का मार्ग रोकने में असफल रही। वे जिस जहाज से यात्रा कर रहे थे, उस पर उन्होंने अंग्रेजी भाषा में अपना पहला व्याख्यान दिया। बाद में अमेरिका के प्रत्येक शहर में खचाखच भरे सभागारों में व्याख्यान देने के लिए ईश्वर ने उनका चयन किया। इसके परिणामस्वरूप सन् 1920 में सेल्फ-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना हुई।
अद्वितीय गुरु ने महासमाधि में प्रवेश करने तक संन्यासियों और गृहस्थों को क्रियायोग की शिक्षा प्रदान की। उनकी महासमाधि भी एक अत्यंत अद्भुत घटना थी।
उनकी मृत्यु के 20 दिन बाद भी उनके शरीर में किसी प्रकार की विक्रिया नहीं दिखाई पड़ी। शवगृह निर्देशक श्री हैरी टी. रोवे ने यह लिखा कि परमहंस योगानन्द की देह “निर्विकारता की एक अद्भुत अवस्था” में थी। महान् गुरु अपने जीवन काल के समान ही मृत्यु में भी मानव जाति के सम्मुख यह प्रमाण प्रस्तुत कर रहे थे कि योग और ध्यान के माध्यम से प्रकृति और समय की शक्तियों पर नियन्त्रण पाना सम्भव है।
जैसा योगानन्दजी ने स्वयं अपने शब्दों में वचन दिया था, उन्होंने अपनी महासमाधि के 73 वर्ष पश्चात् भी अपने सच्चे भक्तों को गृह-अध्ययन आत्म-साक्षात्कार पाठमाला के माध्यम से क्रियायोग की शिक्षा प्रदान करना जारी रखा है, “जो व्यक्ति आन्तरिक आध्यात्मिक सहायता की खोज में सच्चे मन से सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप अथवा योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया में आए हैं, उन्हें वह अवश्य प्राप्त होगा जो वे ईश्वर से प्राप्त करना चाहते हैं। चाहे वे मेरे शरीर में रहते हुए आएँ अथवा मेरे शरीर त्यागने के पश्चात्।”
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लेखिका: नेहा प्रकाश